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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


ललिता ने धीरे-धीरे पूछा- मुझको बुलाया था?

''हाँ,' कहकर क्षणभर चुप रहने के बाद शेखर ने फिर कहा- कल सवेरे की ट्रेन से ही मैं मां को लेकर प्रयाग जाऊँगा। अबकी लौटना शायद देर में हो। यह लो चाभी- तुम्हारे खर्च के लिए रुपये-पैसे सब इसी दराज़ में हैं। हर साल ललिता भी साथ जाती थी। पिछले साल इसी यात्रा के लिए उसने कैसे आनन्द और उत्साह के साथ सब सामान बाँध-बूँधकर चटपट तैयारी कर ली थी! और अबकी वही काम अकेले शेखर दादा को करना पड़ रहा है। खुले हुए सन्दूक पर नजर पड़ते ही ललिता को इन बातों का ख्याल हो आया।

शेखर ने उसकी ओर से मुँह फेरकर एक बार खाँसकर, गला साफ करके, कहा- देखो, सावधानी से रहना; और अगर किसी तरह की आवश्यकता आ पड़े तो दादा से पता पूछकर मुझे चिट्ठी लिखना।

इसके बाद दोनों ही जने चुप। इस दफे ललिता साथ नहीं जायगी, यह खबर शेखर दादा को मिल गई- और शायद उसके न जाने का कारण भी उन्होंने सुन लिया होगा, यह ख्याल करके ललिता लज्जा-संकोच से गड़ी सी जा रही थी।

एकाएक शेखर ने कहा- अच्छा, अब जाओ; मुझे यह सब सामान रखना है। दिन चढ़ चला-मुझे जरा आफिस भी जाना पड़ेगा।

ललिता खुले संदूक के सामने घुटने टेककर बैठ गई और 'बोली- तुम जाकर स्नान करो, मैं सब रक्खे देती हूँ।

''नेकी और पूछ-पूछ!'' शेखर ने चाभियों का गुच्छा ललिता के पास फेंक दिया। कमरे के बाहर जाकर एकाएक रुककर उसने कहा- मुझे क्या-क्या दरकार होगा, यह तुम भूल तो नहीं गई हो?

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