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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


शेखर चुपचाप सुनने लगा। ललिता आजकल क्यों नहीं आना चाहती, इसका कारण भी कुछ थोड़ा सा उसकी समझ में आ गया।

काली कहने लगी- गिरीन्द्र बाबू बड़े भले आदमी हैं शेखर दादा। मँझली दिदिया के ब्याह के समय हमारा घर ताऊजी के यहाँ गिरो रख दिया गया था कि नहीं। बाबूजी कहते थे कि और दो-चार महीने बीतते ही हम लोगों को घर से निकलकर राह-राह भीख मांगते फिरना पड़ता। इसी से गिरीन्द्र बाबू ने ताऊजी के सब रुपये दे दिये। बाबूजी कल ही तो सब रुपये ताऊजी को दे गये हैं। छोटी दिदिया कहती थी कि अब हमें कुछ डर नहीं है- सच है न शेखर दादा?

शेखर कुछ भी उत्तर न दे सका। उसी तरह ताकता रहा। काली ने पूछा- क्या सोच रहे हो शेखर दादा?

अबकी शेखर चौंक पड़ा, और चटपट कह उठा- कुछ नहीं। काली, तनिक अपनी छोटी दिदिया को जल्दी बुला तो ला। कहना, मैं बुला रहा हूँ। जा, जल्दी से दौड़ती हुई जा।

काली दौड़ती चली गई।

शेखर उस खुले हुए सन्दूक की ओर नजर जमाये बैठा रहा। इस समय उसको यह होश न था कि उसे कौन सी चीज चाहिए और कौन सी नर्ही; क्या जरूरी है और क्या फाल्तू। उसकी आँखों के आगे सब एकाकार हो गया। अपनी बुलाहट सुनकर ललिता ने ऊपर आ पहले खिड़की की झिरी से झाँककर देखा, उसका शेखर दादा फर्श पर एकटक धरती की ओर ताकता हुआ स्थिर भाव से बैठा है। शेखर के मुख का ऐसा भाव उसने आज के पहले कभी नहीं देखा था। ललिता को आश्चर्य हुआ, और साथ ही भय भी। धीरे-धीरे पास आकर उसके खड़े होते ही ''आओ'' कहकर शेखर व्यग्रभाव से खड़ा हो गया।

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