सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
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चाय की बैठक से चुपचाप भाग आने के बाद ललिता शेखर के कमरे में जाकर गैस की साफ रोशनी के नीचे एक बक्स खींच लाकर शेखर के गरम कपडे तह करके रखने लगी। इतने ही में शेखर भी आ गया। उसे आते देखकर ललिता ने सिर उठाकर उसके चेहरे पर नजर डाली, तो एकदम भय और विस्मय से सन्नाटे में आ गई- उसके मुँह से कोई शब्द ने निकल सका।
किसी मुकदमे में अपना सर्वस्व हारने पर आदमी जिस तरह का मुँह लिये अदालत के बाहर निकलता है- ऐसी दशा में जैसे सबेरे देखनेवाले लोग शाम को उसे एकाएक पहचान नहीं पाते, इतना परिवर्तन हो जाता है-वैसे ही इस एक घण्टे के अर्से में शेखर के चेहरे में इतनी तबदीली हो गई थी कि ललिता को वह और ही मनुष्य जान पड़ने लगा। उसके चेहरे पर सर्वस्व गँवाने के सारे चिह्न जैसे किसी ने जलते हुए लोहे से दागकर अंकित कर दिये हैं। शेखर ने सूखे गले से पूछा- क्या हो रहा है ललिता?
ललिता इस प्रश्न का उत्तर न देकर, निकट आकर, अपने हाथों में उसका एक हाथ लेकर रुआंसी सी होकर बोली-- क्या हुआ शेखर दादा?
''कहाँ, कुछ तो नहीं हुआ'' कहकर शेखर जबरदस्ती हँसने की चेष्टा करके जरा हँस दिया। ललिता के हाथ का स्पर्श पाकर उसके मुख में कुछ-कुछ जीवन की रौनक फिर आई। वह पास ही एक कुर्सी पर बैठ गया। उसने फिर वही प्रश्न किया- क्या हो रहा है ललिता?
ललिता ने कहा- यह मोटा ओवरकोट रखना भूल गई थी; वही साथ के सन्दूक में रख देने को आई हूँ।
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