सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
शेखर सुनने लगा। ललिता भी अब पहले की अपेक्षा स्वस्थ होकर कहने लगी- ''पारसाल रेलगाड़ी में तुम्हें जाड़े में बड़ा कष्ट हुआ था कि नहीं! बड़े ऊनीकोट तो साथ में कई थे, मगर खूब मोटा कोट एक भी न था। इसी से मैंने लौटकर आते ही दर्जी की दूकान में तुम्हारी माप भेजकर यह भारी ऊनी ओवरकोट बनवा रक्खा था। उसने एक भारी ओवरकोट उठा लाकर शेखर के आगे रख दिया।
शेखर ने उसे हाथ में लेकर देखा-भाला, और कहा- 'इसके बारे में मुझसे तो तुमने कुछ नहीं कहा था?
ललिता ने हँसकर कहा- तुम बाबू साहब ठहरे। तुमसे पहले कहती तो तुम क्या इतना मोटा ओवरकोट बनवाने देते? इसीलिए मैंने तुमसे नहीं पूछा, बनवाकर रख दिया।
अब उस कोट को यथास्थान रखकर ललिता बोली - सब कपड़ों के ऊपर ही रख दिया है, सन्दूक खोलते ही पा जाओगे। देखो, जाड़ा लगते ही इसको पहन लेना, भूलना नहीं!
''अच्छा'' कहकर शेखर थोड़ी देर तक एकटक ललिता की ओर ताकता रहा। इसके बाद एकाएक वह कह उठा- ना, यह हो ही नहीं सकता- किसी तरह नहीं!
ललिता ने कहा- क्या नहीं हो सकता दादा? पहनोगे नहीं?
शेखर चटपट कह उठा- ना, ना, यह बात नहीं है, वह और ही बात है।- अच्छा ललिता, जानती हो, मां का सब सामान बँध गया क्या?
''हाँ, दोपहर को आज मैंने ही तो सब तैयारी कर दी है।'' यह कहकर ललिता और एक दफे सब सामान की जाँच करके सन्दूक में ताला बन्द करने लगी।
दम भर चुप रहने के बाद शेखर ने ललिता की ओर देख- कर धीरे से पूछा- अच्छा ललिता, अगले साल मेरा क्या उपाय होगा- बता सकती हो?
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