सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
ललिता ने आँख उठाकर कहा- क्यों?
''क्यों' का अनुभव मैं ही कर रहा हूँ ललिता।'' शेखर ने यह कह तो डाला, मगर इस कथन को दबा देने के लिए उसी दम, सूखे मुख में प्रफुल्लता का भाव जबरदस्ती लाकर, बात का रुख पलटते हुए यों कहना शुरू किया- किन्तु पराये घर जाने के पहले कौन चीज़ किस जगह रक्खी है, क्या है क्या नहीं है, सब मुझे दिखला जाना; नहीं तो जरूरत के वक्त कुछ भी ढूँढने पर न मिलेगा।
ललिता ने चिढ़कर कहा- जाओ-
इतनी देर बाद शेखर को हँसी आई। - उसने कहा- जाओ का अर्थ तो जानता हूँ; लेकिन हँसी नहीं, सचमुच भविष्य में मेरा क्या उपाय होगा? मुझे शौक तो सोलह आने है, लेकिन शौक पूरा करने की शक्ति पाई भर भी नहीं है। मुश्किल तो यह है कि ऐसे कामों को नौकरों से भी कराया नहीं जा सकता- वे बेगार टालेंगे। अब तो तुम्हारे मामा की तरह केवल एक धोती और एक कुतें में गुजर करना पड़ेगा, यही लक्षण दिखाई देता है। खैर, जो होना होगा वही होगा।
ललिता झट मेज पर चाभियों का गुच्छा फेंककर भाग गई।
शेखर ने चिल्लाकर कहा- कल सबेरे ज़रा एक दफे आना।
ललिता ने सुनकर भी नहीं सुना; वह तेजी से सीढियां तय करती हुई दूसरी मंजिल में उतर गई। वहाँ से अपने घर में जाकर देखा, छत पर एक कोने में चाँदनी के उजेले में बैठी अन्नाकाली, गेंदे के फूलों का ढेर लगाये माला गूँथ रही है। ललिता उसके पास जाकर बैठ गई और बोली- यहाँ ओस में बैठी क्या करती है काली?
काली वैसे ही सिर झुकाये रहकर बोली- माला बना रही हूँ; आज रात को मेरी बिटिया का ब्याह है कि नहीं।
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