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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


''मुझसे तो तूने कहा भी नहीं था!''

काली- कुछ ठीक थोडे़ था छोटी दिदिया। अभी थोड़ी देर हुई, बाबूजी ने पत्रा देखकर बतलाया कि इस महीने में आज के सिवा और लगन ही नहीं है। लड़की सयानी हो गई है, व्याह में देर करने से हँसी होगी। जिस तरह होगा, इसी आज की लगन में भाँवरे पड़ जायँगी। हाँ दिदिया, दो रुपये लाओ, बरातियों के लिए मिठाई मँगवानी है।

ललिता ने हँसकर कहा- बस, रुपये लेने के वक्त छोटी दिदिया है। जा, मेरे बिस्तर पर तकिये के नीचे से ले ले। अच्छा काली, गेंदे के फूलों से कहीं ब्याह होता है?

काली ने, सयानी औरतों का सा मुँह बनाकर कहा- ''होता है। और फूल न मिलने पर इन्हीं से काम चलाया जा सकता है। मैं कई लड़कियों के ब्याह-काज कर चुकी हूँ दिदिया! मैं सब जानती हूँ।''-

वह मिठाई मँगवाने के लिए झपटती हुई नीचे उतर गई।

ललिता उसी जगह बैठकर उन्हीं पूलों की माला बनाने लगी।

थोड़ी देर में काली ने लौटकर कहा- और सबको तो बुलावा दे आई हूँ, सिर्फ शेखर दादा बाकी हैं। जाऊँ, उनसे भी कह आऊँ, नहीं तो बुरा मानेंगे। अब काली शेखर के घर चली गई।

काली पक्की पुरखिन है। वह सारा काम-काज कायदे के साथ किया करती है। शेखर को खबर देकर, ऊपर से नीचे आकर, उसने ललिता से कहा- उन्होंने एक माला माँगी है। जाओ न छुटकी दिदिया, फुर्ती से दे आओ; तब तक मैं इधर का बन्दोबस्त करती हूँ। लगन का वक्त आ ही गया समझो, अब देर नहीं है।

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