सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
ललिता ने सिर हिलाकर कहा- यह मुझसे न होगा काली, तू ही दे आ।
''अच्छा, जाती हूँ। लाओ, वही बड़ी माला उठा दो'' कहकर उसने हाथ बढ़ाया।
काली के हाथ में माला देते-देते ललिता न-जाने क्या सोचकर रुक गई। बोली- अच्छा, मैं ही दिये आती हूँ।
काली ने पुरखिन दाई की तरह मटककर कहा- यही करो, मुझे तो इतने काम करने को पड़े हैं कि मरने की भी फुरसत नहीं।
काली के चेहरे का भाव और कहने का ढँग देखकर ललिता को हँसी आ गई।
''एकदम पक्की पुरखिन हो गई।'' कहकर हँसती हुई ललिता माला लिये हुए वहाँ से चली।
शेखर के घर जाकर, किवाड़ों की झिरी से झाँककर, कमरे के भीतर देखा, शेखर एकाग्र मन से बैठा चिट्ठी लिख रहा है। उसने धीरे से दरवाजा खोला, भीतर गई, धीरे-धीरे शेखर के पीछे जाकर खड़ी हो गई। इतने पर भी उसे ललिता के आने की खबर नहीं हुई। तब ललिता ने दम भर चुप रहकर, एकाएक चकित कर देने के विचार से, अपने हाथ की उस माला को सावधानी के साथ शेखर के गले में डाल दिया, और फुर्ती के साथ कुर्सी के पीछे बैठ गई।
शेखर पहले तो चौंककर कह उठा-''काली है।''
लेकिन मुँह फेरकर देखते ही अत्यन्त गम्भीर बनकर रूखे रुख से बोला- यह तुमने क्या किया ललिता!
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