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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


शेखर ने मस्तक हिलाकर कहा-अच्छा, देखूँगा।

गुरुचरण ने फिर कहा-देखो भूल न जाना भैया। और, ललिता के बारे में तुम खुद ही खूब अच्छी तरह जानते हो। वह आठ बरस की अवस्था से तुम्हारे पास पढ़ती-लिखती रही है। तुमने देख ही लिया होगा कि वह कैसी बुद्धिमती है, कैसी सुशील है, कैसी शिष्ट-शान्त है। बेचारी इतनी-सी लड़की आज से घर में रसोई बनावेगी, सबको खिलावे-पिलावेगी, गिरस्ती का बोझ सँभालेगी-सब्र उसी के मत्थे आ पड़ा है।

ललिता ने एक बार आँख उठाकर देखते हुए नीची नजर कर ली। उसके होठों के दोनों सिरे केवल कुछ फैलकर रह गये। गुरुचरण ने एक साँस लेकर कहा-ललिता के बाप ने क्या कुछ कम कमाई की थी, लेकिन वह सारा धन इस तरह दान कर गया कि इस एकमात्र कन्या के लिए भी कौड़ी नहीं छोड़ी। शेखर चुप रहा। गुरुचरण आप ही फिर कहने लगे- और यही कैसे कहूँ कि नहीं रख गया? उसने जितने आद मियों का दुःख और कष्ट दूर किया है उसका सारा फल मेरी इस बच्ची को दे गया है। नहीं तो इतनी सी लड़की ऐसी अन्नपूर्णा कैसे होती! तुम्हीं बताओ शेखर, सच है कि नहीं? शेखर हँसने लगा। कुछ उत्तर नहीं दिया।

शेखर जैसे उठने को तैयार हुआ वैसे ही गुरुचरण ने पूछा--इतने सबेरे कहाँ जाते हो?

''बारिस्टर साहब के बँगले पर - एक मुकदमा है।'' यह कहकर शेखर उठ खड़ा हुआ। गुरुचरण ने एक बार फिर याद दिलाते हुए कहा-मैंने जो कुछ कहा है उसका ख्याल रखना भैया। इसका रंग जरा सांवला जरूर है, लेकिन ऐसी आँख, चेहरा, ऐसी हँसी, इतनी दया और ममता दुनिया भर में खोजते फिरने पर भी कोई कहीं यहीं पावेगा।

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