सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
ललिता ने कोठरी से निकलकर धीरे से कहा- ''आती हूँ, तुम जाओ।'' उसने ऊपर जाकर किवाड़े कुछ खोले, देखा, अभी तक शेखर की चिट्ठी समाप्त नहीं हुई-बह उसी को लिख रहा है। कुछ देर तक चुपके खड़े रहने के बाद अन्त को धीरे से कहा- किसलिए बुलाया है?
शेखर ने लिखते ही लिखते कहा- पास आओ, कहता हूँ।
ललिता- नहीं, यहीं से सुनूँगी, कह दो।
मन में हँसते हुए शेखर ने कहा- तुमने अचानक यह क्या कर डाला, बताओ तो भला?
ललिता ने रूठकर कहा-- जाओ-फिर वही बात!
शेखर ने मुँह फिराकर कहा- मेरा क्या दोष? तुम्हीं तो कर गईं-
ललिता- कुछ नहीं किया मैंने, तुम वह माला फेर दो मुझे।
शेखर- इसी के लिए तुम्हें बुला भेजा है ललिता। पास आओ, फेरे देता हूँ। तुम आधा कर गई हो, खिसक आओ, मैं उसे सम्पूर्ण कर दूँ।
ललिता दरवाजे की आड़ में क्षण भर चुपकी खड़ी रही। फिर बोली- सच कहती हूँ तुमसे मैं, इस तरह का ठट्ठा करोगे तो आइन्दा फिर कभी तुम्हारे सामने न आऊँगी। लाओ, फेर दो।
शेखर ने टेबिल की ओर मुँह फेरकर कलम उठा ली, और कहा- ले जाओ कहता तो हूँ।
ललिता-- तुम वहीं से फेंक दो।
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