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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


शेखर ने गरदन हिलाकर कहा-- पास आये बिना नहीं पाओगी।

''तो मुझे जरूरत नहीं है'' कहकर खफा होकर ललिता चली गई।

शेखर ने चिल्लाकर कहा- लेकिन आधा हो गया-

''हो जाने दो, हो जाने दो'' कहती हुई ललिता सचमुच क्रोध करके चली गई।

वह चली तो जरूर गई, लेकिन नीचे नहीं गई। पीछे की ओर जो खुली हुई छत थी, उस पर एकान्त में जाकर रेलिंग पकड़कर चुपचाप खड़ी हो गई। उस समय सामने आकाश में चन्द्रमा निकल आया था, और जाड़े की मलिन चांदनी चारों ओर छाई हुई थी। ऊपर स्वच्छ नीला आकाश था। ललिता एक बार शेखर के कमरे की ओर नजर डालकर ऊपर मुँह करके देखने लगी। इस समय उसकी आँखों में जलन होने लगी; लज्जा तथा रोष के वेग से आँर्खों में आँसू भर आये। वह इतनी नन्हीं नहीं है कि इन सब बातों का मतलब पूरी तरह समझ न सके। फिर उसके साथ यह मर्मस्थल में चोट पहुँचाने वाला उपहास करने की क्या जरूरत! वह कितनी तुच्छ है, कितनी नीची दशा में है, यह समझने लायक उसकी अवस्था हो चुकी है। वह निश्चित रूप से जानती है कि अनाथ और निरुपाय समझकर उसको सभी आदर-यत्न और प्यार करते हैं। शेखर भी इसी दृष्टि से उसके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करता है, और शेखर की माता भी करती है। उसका अपना संसार में कोई नहीं है। उसका सच्चा दावा किसी के ऊपर न होने के कारण ही गिरीन्द्र, बिलकुल गैर होकर भी, उसका उद्धार कर देने की बात मुँह से निकाल सका है।

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