सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
ललिता आँखें मूँदकर मन ही मन कहने लगी- इस कलकत्ते के समाज में उसके मामा की अवस्था इन शेखर वगैरह के मुकाबले में कितनी हीन है, उसके मामा का स्थान इन लोगों से कितना नीचे है! वह उसी गरीब मामा के आश्रित है- उनके गले की फाँसी है। उधर बराबर के धनी प्रतिष्ठित घर में शेखर के ब्याह की बातचीत हो रही है। दो दिन पहले हो या पीछे, एक न एक दिन उसी घर में शेखर का ब्याह होना एक प्रकार से निश्चित है। इस ब्याह में नवीन राय के कितने तोड़े हाथ लगेंगे, इसकी चर्चा भी वह शेखर की माता से सुन चुकी है।
फिर क्यों आज अकस्मात् इस तरह शेखर दादा उसका अपमान कर बैठे! यही सब बातें ललिता सामने आकाश में शून्य दृष्टि स्थापित किये, ध्यान-मग्न सी होकर, सोच रही थी। एकाएक चौंककर मुँह फेरा तो देखा, शेखर चुपचाप पीछे खड़ा हँस रहा है और थोड़ी देर पहले उसने जिस ढँग से शेखर को माला पहनाई थी उसी तरह वही गेंदे के फूलों की माला उसके गले में लौट आई है। रुआई के वेग से उसका गला रुँध आया; तथापि उसने जोर करके विकृत स्वर में कहा- क्यों ऐसा किया?
''तुमने क्यों किया था?''
''मैंने कुछ नहीं किया'' कहने के साथ उसने झटका देकर उस माला को तोड़ डालने के लिए उसमें हाथ लगाया ही था कि अचानक शेखर की आँखों को देखकर वह रुक गई। फिर माला को तोड़ डालने की हिम्मत न पड़ी; मगर रोती हुई बोली- मेरे कोई नहीं है, इसी से तो तुम इस तरह करके मेरा अपमान कर रहे हो!
शेखर अब तक खड़ा मुसकरा रहा था; ललिता की यह बात सुनकर वह सन्नाटे में आ गया। ये तो बालकों की बातें नहीं हैं! शेखर ने कहा-- मैं तुम्हारा अपमान करता हूँ या तुम मेरा अपमान कर रही हो?
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