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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।

9

उस दिन, रात को, बहुत देर तक शेखर विह्वल-सा होकर पागल की तरह सड़कों और गलियों में घूम-फिरकर अभी लौटकर घर में बैठा सोच रहा था कि यह कल की जरासी छोकरी ललिता इतनी तेज किस तरह हो गई! इसने इतनी और ऐसी बातें सीख लीं! बेहया बातूनी औरत की तरह इस प्रकार मेरे मुँह पर ही उसने ये बातें कैसे कर पाईं?

आज वह ललिता के व्यवहार से सचमुच बहुत विस्मित और कुपित हो गया था। मगर इस क्रोध का यथार्थ कारण क्या है, इस पर जो वह कुछ भी गौर करता, अगर वह शान्त होकर सोचकर देखता, तो उसे देख पड़ता कि यह क्रोध ललिता के ऊपर नहीं, संपूर्णरूप से अपने ही ऊपर है।

ललिता को छोड़कर इधर कई महीने बाहर रहने के समय उसने अपने आप को अपनी ही कल्पना के भीतर बांध रक्खा था - केवल काल्पनिक सुख, दुःख, लाभ, हानि का हिसाब लगाकर देखते हुए वह इसी की आलोचना करता रहता था कि ललिता उसके जीवन के भविष्य भाग के साथ कैसे-न कटनेवाले-बन्धन से बँधी हुई है, अथवा उसके बिना अपना जीवित रहना कितना कठिन, कितना दुःखदायक हो सकता है। ललिता बाल्यावस्था से ही शेखर के परिवार में आकर शामिल हो गई थी, इस कारण उसने उसे विशेष रूप से उस परिवार के भीतर मां-बाप और भाई-बहन आदि के अन्तर्गत करके कभी नहीं देखा; इस रूप में देखने का ख्याल भी उसके मन में नहीं आया। शायद ललिता न मिल सकेगी, मां-बाप की सम्मति इस ब्याह में नहीं प्राप्त हो सकेगी, शायद वह और ही किसी की होगी-इसी तरह की राह में होकर उसकी दुश्चिन्ता का प्रवाह बराबर शुरू से ही बहता चला आ रहा था। इसी कारण विदेशयात्रा के पहले दिन, रात्रि के समय, जबरदस्ती उसके गले में माला डालकर शेखर इस ओर (और के साथ उसके ब्याह) की राह बन्द कर गया था।

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