सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
प्रवास में रहकर गुरुचरण के धर्म-परिवर्तन की खबर जब उसने सुनी तब सुनते ही वह व्याकुल हो उठा। वहाँ दिन-रात हर घड़ी उसके सिर पर यही चिन्ता सवार रही कि कहीं ललिता हाथ से निकल न जाय। सुख मिले चाहे दुःख, आज तक चिन्ता का यही पहलू उसका परिचित था; किन्तु आज ललिता की स्पष्ट बातों ने इस द्वार को धड़ाम से बन्द करके चिन्ता की धारा को एकदम विपरीत दिशा में बहा दिया। तब ललिता मिलेगी या नहीं, यह चिन्ता थी, मगर अब ललिता को छोड़ना कहीं असम्भव न हो उठे, यह चिन्ता हो गई। श्यामबाजार का ब्याह उचट गया था। अन्त को वे लोग भी उतने रुपये, जितने नवीन राय माँगते थे, देने की हिम्मत न कर सके। इधर शेखर की मां ने भी थह सम्बन्ध पसन्द नहीं किया। इस प्रकार इस संकट से तो फिलहाल कुछ दिन के लिए शेखर छुटकारा पा गया। मगर नवीन राय की नजर में दस-बीस हजार रुपयों का शिकार चढ़ा हुआ था। इतने से कम में काम करने को वे तैयार न थे, और न ऐसे आँख के अन्धे गाँठ के पूरे लड़की वाले को लाकर फँसाने के लिए दलाल दौड़ाना ही बन्द था।
इधर शेखर सोचता था, क्या किया जाय? उस रात का वह काम इतना भारी और अपरिहार्य हो उठेगा, ललिता उस पर इस तरह निस्संशय भाव से सम्पूर्ण विश्वास कर वैठेगी, कि उसका सचमुच विवाह हो गया है, धर्म के अनु- सार किसी कारण से इसके विपरीत नहीं हो सकता-इतनी दूर तक शेखर ने विचार नहीं किया था। यद्यपि उसने अपने ही मुँह से यह बात उस समय कही थी कि ''जो होना था, हो गया; अब उसे हम या तुम, कोई लौटा नहीं सकता'' तथापि, उस समय आज की तरह सब पहलुओं पर अच्छी तरह गौर के साथ विचार करने की शक्ति उसमें नहीं थी। और, शायद अवसर भी न था।
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