सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
उस वक्त सिर के ऊपर आकाश में चन्द्रमा चढ आया था, चारों ओर चमकीली चांदनी फैली हुई थी, गले में माला पड़ी थी, प्रियतमा के धड़कते हुए हृदय को अपनी छाती से लगाकर पहले-पहल उस नये अनुभब से मिला हुआ मोह था, और प्रेमीजन जिसे अधर-सुधा कहते हैं उसके पीने का बहुत ही तेज नशा था। उस समय स्वार्थ और सांसारिक अच्छाई-बुराई का ख्याल नहीं हुआ; अर्थलोलुप पिता का रौद्र रूप आँखों के आगे आकर उपस्थित नहीं हुआ। सोचा था, मां तो ललिता को प्यार करती हैं, अतएव उन्हें राजी करना कुछ कठिन न होगा; और पिता को भी दादा (बड़े भाई) की सिफारिश पहुँचाकर किसी न किसी तरह नरम कर लिया जा सकेगा, तो शायद अन्त तक काम सिद्ध हो जायगा। इसके अलावा उस समय गुरुचरण ने इस तरह अपने को अलग करके उन (दोनों) की आशा के द्वार को भारी पत्थर से कसकर बन्द नहीं कर दिया था। अब तो विधाता आप ही विमुख हो बैठे देख पड़ते हैं।
वास्तव में शेखर के चिन्ता करने की बात विशेष कुछ न थी। वह निश्चित रूप से जानता था कि अब पिता को राजी करना तो दूर रहा, माता को भी राजी करना सम्भव नहीं। अब तो इस बात का जिक्र जवान पर लाने की भी राह नहीं रही।
शेखर ने लम्बी साँस छोड़कर और एक बार अस्पष्ट स्वर में कहा- क्या किया जाय! वह ललिता को अच्छी तरह जानता था। उसको उसी ने अपने हाथ से लिखा-पढाकर, शिक्षा देकर, इतना बड़ा किया है। इसने एक बार जिसे अपना धर्म जान लिया है उसे वह किसी तरह नहीं छोड़ने की। उसने समझ लिया है कि वह शेखर की धर्मपत्नी हो चुकी। इसीसे आज शाम को अँधेरे में, बिना किसी संकोच के, शेखर के वक्षःस्थल के निकट आकर मुँह के पास मुँह ले जाकर वह इस तरह खड़ी हुई थी।
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