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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


शेखर ने इस विषय में फिर कुछ नहीं पूछा।

मां ने कुछ देर चुप रहकर कहा- ललिता से सुना है कि उसके मामा का शरीर भी आजकल अच्छा नहीं है। बात ही ऐसी है। एक तो उनके मन में ही शान्ति या सुख रत्ती भर नहीं है, उस पर घर में रोल रोना-धोना लगा रहता है। एक मिनट के लिए भी उस घर में सुख या चैन नहीं है।

शेखर चुपचाप सुन रहा था; चुप ही रहा, कुछ बोला नहीं। दम भर बाद मां के उठ जाने पर वह आकर अपने- बिस्तर पर लेट रहा, और ललिता के बारे में सोचने लगा। शेखर का घर जिस गली में था उसके भीतर दो गाडियों के एक साथ आने-जाने भर की जगह न थी। एक गाड़ी किनारे के घर से बिलकुल सटकर न खडी हो तो दूसरी उधर से नहीं जा सकती। आठ-दस दिन के बाद एक दिन शेखर अपने आफिस से आ रहा था। गली में गुरुचरण के घर के सामने आगे जाने को जगह न पाकर गाड़ी रुक गई। शेखर उतर पड़ा। पूछने से मालूम हुआ, डाक्टर आया है। कई दिन हुए, शेखर ने मां से सुना था कि गुरुचरण बीमार है। उसी खयाल से वह घर न जाकर सीधा गुरु- चरण के सोने की दालान में पहुँचा। वही बात थी। गुरुचरण मुर्दे की तरह बिछौने पर पड़े थे। एक ओर गिरीन्द्र और ललिता, दोनों सूखा मुँह लिये बैठे थे। सामने. कुर्सी के ऊपर बैठे डाक्टर रोग की जाँच कर रहे थे।

गुरुचरण ने अस्पष्ट स्वर में शेखर से बैठने के लिए कहा। ललिता ने सिर पर धोती का आँचल और जरा खींचकर दूसरी ओर मुँह कर लिया।

डाक्टर महल्ले के ही आदमी थे। शेखर को पहचानते थे। रोग की परीक्षा करके, औषध और पथ्य की व्यवस्था करके, शेखर को साथ लिये बाहर आकर बैठे। गिरीन्द्र ने पीछे से आकर फीस के रुपये देकर डाक्टर को जब बिदा किया तब डाक्टर ने विशेष रूप से उसे सावधान करते हुए बतलाया कि रोग अभी तक अधिक आगे नहीं बढ़ा है; इस समय जलवायु बदलने की अत्यन्त आवश्यकता है।

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