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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


दासी ने हाथ से गुरु बाबू का घर दिखाकर कहा- वही हमारी पुरानी परोसिन काली की अम्मा छोटे भैया। वे कल रात को आ गई हैं।

''अच्छा चल, मैं अभी आता हूँ'' कहकर शेखर फौरन नीचे उतरा।

उस समय दिन ढल चुका था। घर के भीतर शेखर के पैर रखते ही भीतर से हृदय-विदारक करुण-क्रन्दन उमड़ उठा। विधवा के वेश में बैठी हुई गुरु बाबू की स्त्री के पास जाकर शेखर उसी जगह जमीन में बैठ गया, और चुपचाप धोती के खूंट से अपने आँसू पोंछने लगा। केवल गुरुचरण के लिए ही नहीं, अपने पिता के लिए भी वह फिर शोकाकुल और विह्वल हो उठा।

शाम हो गई। ललिता आकर दिया जला गई। उसने दूर ही से गले में आँचल डालकर शेखर को प्रणाम किया। फिर क्षण भर ठहरकर अपेक्षा करने के बाद धीरे-धीरे अन्यत्र चली गई। शेखर के ख्याल में ललिता अब पराई पत्नी हो चुकी थी, अतएव वह सत्रह साल की जवान पराई स्त्री की ओर न तो आँख उठाकर देख ही सका, और न बुलाकर उससे बातचीत ही कर सका। मगर फिर भी कनखियों से उसने जितना देख पाया, डससे जान पड़ा कि ललिता जैसे अब और कुछ बड़ी हो गई है, साथ ही बहुत दुबली हो गई है। बहुत रोने-धोने के बाद गुरु बाबू की विधवा ने जो कुछ कहा उसका सारांश यही है कि वे इस घर को बेचकर मुँगेर में दामाद ही के पास रहना चाहती हैं। शेखर के बाप की बहुत दिनों से यह घर मोल लेने की इच्छा थी; अतएव इस समय अगर मुनासिब दामों में वे ही-शेखर आदि-मोल ले लें तो उन्हें भी यह सन्तोष होगा कि घर बिकने पर भी एक तरह से अपने ही आदमियों के अधिकार में रहा। उन्हें फिर घर के बिकने का कुछ भी क्लेश न होगा। और भी सुभीता यह रहेगा कि वे आइन्दा कभी यदि इस देश में आयेंगी तो दो-एक दिन के लिए अपने घर में ठहर सकेंगी। सब सुनकर शेखर ने वादा किया कि वह मां से इस बारे में पूछेगा, और अपनी शक्ति भर उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए प्रयत्न करेगा।

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