सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
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मां को लेकर शेखर जब लौट आया तब भी व्याह का दिन दूर था-दस-बारह दिन बीच में थे।
दो-तीन दिन के बाद एक दिन सबेरे के समय भुवनेश्वरी के पास बैठी हुई ललिता एक डलवे में कोई चीज उठा-उठाकर रख रही थी। शेखर को ललिता की उपस्थिति मालूम न थी, इसी से किसी काम के लिए ''मां'' कहकर कमरे के भीतर पैर रखते ही वह अकचकाकर खड़ा हो गया। ललिता सिर झुकाकर काम करने लगी।
मां ने पूछा- क्या है रे?
वह जिस काम से आया था उसे भूलकर ''नहीं, इस वक्त रहने दो', कहता हुआ चटपट वहाँ से चल दिया। उसने ललिता का मुँह नहीं देख पाया था; किन्तु दोनों हाथों पर नजर पड़ गई थी। हाथ बिलकुल खाली नहीं थे, केवल काँच की दो-दो चूड़ियाँ ही उनकी शोभा बढ़ा रही थीं। शेखर ने मन ही मन क्रूर हँसी हँसते हुए कहा- यह भी, एक तरह का ढोंग है! वह जानता था, गिरीन्द्र मालदार है। उसकी पत्नी के हाथों के इस प्रकार अलंकार-शून्य होने का कोई उचित कारण उसे न सूझ पड़ा।
उसी दिन सन्ध्या के समय, जब वह तेजी से नीचे उतर रहा था तब, इधर से ललिता भी ऊपर चढ़ रही थी। बीच में मुठभेड़ हो गई। ललिता एक तरफ खिसककर खड़ी हो रही। किन्तु शेखर के पास पहुँचते ही अत्यन्त संकोच के साथ धीरे से बोली- तुमसे एक बात कहनी है।
शेखर ने जरा ठिठककर विस्मयसूचक स्वर में कहा- किससे? मुझसे?
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