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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


शेखर शुरू से ही मन में गिरीन्द्र के ऊपर विद्वेष का भाव रखता आ रहा था। और, इस अवसर पर, वह विद्वेष का भाव घोर घृणा के रूप में बदल गया था। किन्तु आज उसके जाते ही शेखर ने उठकर जहाँ गिरीन्द्र बैठा था उस जगह, बार-बार सिर रखकर, इस अपरिचित ब्रह्मसमाजी युवक के उद्देश से प्रणाम किया। मनुष्य चुपचाप कितना बड़ा स्वार्थ- त्याग कर सकता है, हँसते-हँसते कैसी कठोर प्रतिज्ञा का पालन कर सकता है, यह आज पहले-पहल उसने देखा।

तीसरे पहर भुवनेश्वरी अपने कमरे में फर्श पर बैठी हुई ललिता की सहायता से नये कपड़ों को तहा-तहाकर उनका ढेर लगा रही थीं। इसी समय शेखर वहाँ जाकर मां के बिस्तरे पर बैठ गया। आज वह ललिता को देखते ही जान लेकर वहाँ से भागा नहीं। मां ने उसकी ओर देखकर कहा-- क्यों? शेखर कुछ उत्तर न देकर कपड़ों को तहकर रक्खा जाना देखने लगा। दमभर बाद उसने पूछा - यह क्या हो रहा है मां?

मां ने कहा- नये कपड़े किसे किस हिसाब से दिये जायँगे, कितने कपड़े चाहिएँ, यही अब हिसाब लगाकर देख रही हूँ। जान पड़ता है, अभी और कपड़े खरीदने होंगे। क्यों न बेटी?

ललिता ने सिर हिलाकर अनुमोदन किया।

शेखर ने हँसते-हँसते कहा- और जो मैं ब्याह न करूँ तो?

भुवनेश्वरी ने भी हँसकर कहा- तुम यह भी कर सकते हो बेटा।

शेखर ने हँसकर कहा- तो यही बहुत सम्भव है।

मां ने गम्भीर होकर कहा- यह कैसी बात है! ऐसी अलच्छनी बात मुँह से न निकालना।

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