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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


रामदास ने कहा, “वह इस मामले को जानता था। लोग जानते हैं कि 'हालदार' के साथ जोसेफ का मुकदमा चलने पर अंग्रेजी न्यायालय में क्या होता है। बीस रुपए की जुर्माने की बदनामी....।

“लेकिन यह तो बिना अपराध का दंड हुआ रामदास?”

“हां, बिना अपराध मैं भी दो वर्ष जेल में रह आया हूं।”

“दो वर्ष जेल में?”

“हां, दो वर्ष,” फिर हंसकर बोला, 'अगर अपने कुर्त्तों को उतार दूं तो देखोगे कि बेंतों के दागों से कोई स्थान बचा नहीं है।”

“बेंत भी लग चुके हैं रामदास?”

रामदास हंसकर बोला, “हां, ऐसा ही। बिना अपराध के भी मैं इतना निर्लज्ज हूं कि लोगों को मुंह दिखाता हूं और आप बीस रुपए जुर्माने की बदनामी नहीं सह सकते?”

अपूर्व उसका मुंह देखकर चुप हो गया। रामदास बोला, “अच्छा, चलिए आपको पहुंचाकर घर जाऊं।”

“अभी ही चले जाओगे? अभी तो बहुत-सी बातें जाननी हैं।”

रामदास ने हंसकर कहा, “सब आज ही जान लोगे? यह नहीं होगा। मुझे सम्भवत: बहुत दिनों तक बताना पड़ेगा।”

बहुत दिनों पर उसने इस तरह जोर दिया कि अपूर्व आश्चर्य से उसे देखता रह गया, लेकिन कुछ समझ नहीं पाया। रामदास गली के अंदर नहीं गया। बाहर से ही विदा लेकर स्टेशन चला गया।

अपूर्व ने द्वार पर धक्का दिया। तिवारी ने आकर दरवाजा खोल दिया। वह घर के कामों में लगा हुआ था, उसका चेहरा उतर गया था। वह बोला, “उस समय जल्दबाजी में दो नोट फेंक गए थे आप?”

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