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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपूर्व ने आश्चर्य से पूछा, 'कहां फेंक गया था जी?”

“यहीं तो....” कहते हुए उसने दरवाजे के पास रखी मेज की ओर इशारा किया, “आपके तकिए के नीचे रख दिए हैं। बाहर कहीं नहीं गिरे, यही सौभाग्य है।”

वह नोट कैसे गिर पड़े? यही सोचते हुए अपूर्व अपने कमरे में चला गया।

तिवारी ने रात को रोते हुए हाथ जोड़कर कहा, “इस बूढे क़ी बात मानिए बाबू! चलिए, कल सवेरे ही हम लोग जहां भी हो भाग चलें।”

अपूर्व ने कहा, 'कल ही? सुनूं तो? क्या धर्मशाला में चले, चलें?”

तिवारी बोला, “इससे तो वही अच्छा है। साहब मुकदमे में जीत गया है। अब किसी दिन हम दोनों को पीट भी जाएगा।”

अपूर्व सहन न कर सका। क्रोधित होकर बोला, “मां ने क्या तुझे मेरे घाव पर नमक छिड़कने के लिए भेजा था? मुझे तेरी जरूरत नहीं, तू कल ही घर चला जा। मेरे भाग्य में जो बदा है वही होगा।”

तिवारी फिर कुछ नहीं बोला। चुपचाप सोने चला गया। उसकी बात अपूर्व को अपमानजनक जान पड़ी। इसलिए उसने ऐसा उत्तर दिया था। अगले दिन नए मकान की खोज होने लगी। तलवलकर को छोड़कर ऑफिस के लगभग सभी लोगों से उसने कह दिया था। इसके बाद तिवारी ने फिर कोई शिकायत नहीं की।

स्वाभाविक बात थी कि मुकदमा जीत जाने के बाद जोसेफ परिवार के विचित्र उपद्रव नए-नए रूप में प्रकट होंगे। लेकिन उपद्रव की बात कौन कहे, ऊपर कोई रहता नहीं, कभी-कभी यह संदेह होने लगा था।

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