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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।

2

उपद्रव रहित एक सप्ताह के बाद एक दिन ऑफिस से लौटने पर तिवारी ने प्रसन्न होकर कहा, “आपने सुना छोटे बाबू?”

“क्या”

“साहब का पैर टूट गया। अस्पताल में हैं। देखें बचता है या नहीं।”

“तुझे कैसे पता लगा?”

तिवारी बोला, “मकान मालिक का मुनीम हमारे जिले का है। वह आया था किराया लेने, उसी ने बताया है।”

“हो सकता है,” कहकर अपूर्व कपड़े बदलने अपने कमरे में चला गया।

तिवारी को पूर्ण विश्वास था कि म्लेच्छ होकर ब्राह्मण के सिर पर जिसने घोड़े की तरह पैर पटका है, उसका पैर न टूटेगा तो क्या होगा? अगले दिन अपूर्व ने तिवारी को बुलाकर कहा, 'एक मकान मिला है, जाकर देख आओ।”

तिवारी ने हंसकर कहा, “अब दूसरे मकान की जरूरत नहीं पड़ेगी बाबू! मैंने सब ठीक कर लिया है। अगली पहली तारीख को जाने वाले चले जाएंगे।”

मकान बदलने में कम झंझट नहीं है, अपूर्व अच्छी तरह जानता था। लेकिन साहब की अनुपस्थिति में जो उपद्रव बंद हो गया है वह उनके लौट आने पर भी बंद रहेगा, उसे ऐसी आशा नहीं थी। ऑफिस जाने से पहले तिवारी ने छुट्टी मांगते हुए बताया कि आज दोपहर को वह बर्मियों के मंदिर में तमाशा देखने जाएगा। अपूर्व ने हंसकर पूछा, “तुझंम तमाशा देखने का कब से शौक हुआ है। तिवारी?”

“विदेश का सब कुछ देख लेना चाहिए बाबू!”

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