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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपूर्व के 'हां' कहने पर भारती बोली, “तो फिर वह भी चला गया।”

“कितना था?”

“यह मालूम नहीं।”

“यह तो मैं पहले ही समझ गई हूं। आपके पास मनी बैग है न? लाइए, मुझे दीजिए देखूं।”

अपूर्व ने मनी बैग भारती को दे दिया। वह हिसाब लगाकर बोली, “दो सौ पचास रुपए आठ आने हैं। घर से कितने लेकर चले थे?”

अपूर्व बोला, “छ: सौ रुपए।”

भारती लिखने लगी-जहाज का किराया, तांगे का भाड़ा, कुली की मजदूरी ...पहुंचकर घर के लिए तार भेजा था न? अच्छा, उसका भी रुपया और उसके बाद इधर दस दिनों का खर्च।”

अपूर्व बोला, “वह तिवारी से बिना पूछे कैसे बता सकता हूं?”

भारती बोली, “सब मालूम हो जाएगा। दो-एक रुपए का अंतर पड़ सकता है। अधिक नहीं।” कागज पर अपने आप हिसाब लिखकर बोली, “इसके अतिरिक्त और कोई खर्च तो नहीं है न?”

“नहीं।”

“तो फिर दो सौ अस्सी रुपए चोरी गए हैं।”

अपूर्व चकित होकर बोला, “इतने रुपए?-रुकिए, बीस रुपए और कम कीजिए। जुर्माने का रुपया नहीं लिखा?

“नहीं, वह अन्याय था, झूठमूठ का जुर्माना। वह मैं कम नहीं करूंगी।

अपूर्व चकित होकर बोला, “जुर्माना तो झूठमूठ हो सकता है लेकिन जुर्माना देना तो सच है।”

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