उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
भारती ने कहा, “कौन जाता? आदमी कहां है? सोचा था, शायद हालचाल पूछने आएंगे लेकिन वह नहीं आए। और इसके अलावा बात फैल जाने की भी आशंका थी।”
“यह तो जरूर है,” कहकर अपूर्व ने एक लम्बी सांस लेकर चुप रह गया। बहुत देर बाद बोला, “आपका चेहरा कैसा हो गया?”
भारती हंसकर बोली, “यानी पहले इससे सुंदर था?”
अपूर्व इस बात का कोई उत्तर नहीं दे सका। उसकी दोनों आंखों की मुग्ध दृष्टि श्रद्धा और कृतज्ञता से उस तरुणी पर टिक गई। बोला, “मनुष्य जो काम नहीं करता, उसे आपने किया है। लेकिन अब आपकी छुट्टी है। तिवारी मेरा केवल नौकर ही नहीं है, मेरा मित्र भी है। उसकी गोद और पीठ पर चढ़-चढ़कर ही मैं बड़ा हुआ हूं। अब भोजन के लिए घर जाइए। क्या घर यहां से बहुत दूर है?'
भारती बोली, “हम लोग तेल के कारखाने के पास, नदी के किनारे रहते हैं। मैं कल फिर आऊंगी।”
दोनों उतरकर नीचे आ गए। ताला खोलकर दोनों कमरे में घुसे। तिवारी जाग जाने पर भी बेसुध-सा पड़ा था। अपूर्व उसके बिस्तर के पास आकर बैठ गया और जो बर्तन आदि बिना मांजे-धोए पड़े थे उन्हें उठाकर भारती स्नानघर में चली गई। उसकी इच्छा थी कि जाने से पहले रोगी के संबंध में दो-चार जरूरी बातें बताकर इस भयानक रोग से अपने को सुरक्षित रखने की आवश्यकता की बात याद दिलाकर जाए। हाथ का काम समाप्त करके इन्हीं बातों को दोहराती हुई कमरे में लौटी तो उसने देखा कि चेतना शून्य तिवारी के विकृत मुंह की ओर टकटकी लगाए देखता हुआ अपूर्व पत्थर की मूर्ति की तरह बैठा है। उसका चेहरा एकदम सफेद हो गया है। चेचक की बीमारी उसने अपने जीवन में कभी देखी नहीं थी। भारती जब निकट आ गई तो उसकी दोनों आंखें छलछला उठीं। बच्चों की तरह व्याकुल स्वर में बोल उठा, “मैं कुछ न कर सकूंगा भारती।”
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