उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
यह अंतिम बात अगर वह न भी कहती तो अच्छा होता। क्योंकि लज्जा के मारे अपूर्व का मुंह केवल लाल ही नहीं हो उठा, इस मामले में अपने उन प्रकट और अप्रकट इशारों की याद करके उसके शरीर में कांटे से चुभ उठे।
भारती फिर कहने लगी, “दरवाजा बंद था। हजारों बार पुकारने और चिल्लाने पर भी किसी ने उत्तर नहीं दिया। ऊपर की मंजिल की चाबी मेरे पास थी। दरवाजा खोलकर अंदर गई। मेरे फर्श में एक छेद हो गया है, “यह कहकर उसने लज्जा से हंसी को छिपाकर कहा, “उस छेद से आपके कमरे का सब कुछ दिखाई देता है। देखा, सभी दरवाजे बंद हैं। अंधेरे में कोई आदमी सिर से पैर तक कपड़ा ओढ़े सोया पड़ा है। तिवारी जैसा दिखाई दिया। उसी छेद पर मुंह रखकर चिल्ला-चिल्लाकर पुकारा, तिवारी मैं भारती हूं। तुमको क्या हुआ? दरवाजा खोल दो- फिर नीचे आकर इसी तरह चीख-पुकार मचाने लगी। बीस मिनट के बाद तिवारी किसी तरह घिसटकर आया और दरवाजा खोल दिया। उसका चेहरा देखकर फिर कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहीं रही। इसके तीन-चार दिन पहले, सामने वाले मकान के कमरे से पुलिस वाले चेचक से बीमार दो तेलुगु कुलियों को पकड़कर अस्पताल ले गए थे। उनका रोना-पीटना, गिड़गिड़ाना तिवारी ने अपनी आंखों से देखा था। मेरे दोनों पांव पकड़कर भों-भों करके रोते हुए बोला, “माई जी मुझे प्लेग अस्पताल में मत भेजना। भेजने से फिर मेरे प्राण नहीं बचेंगे।” यह बात बिल्कुल झूठी भी नहीं है। वहां से किसी के जिंदा लौटकर आने की बात बहुत ही कम सुनाई देती है, इसी डर से वह रात-दिन दरवाजे-खिड़कियां बंद करके पड़ा रहता है। मुहल्ले में किसी भी आदमी को अगर पता चल गया तो फिर रक्षा नहीं है।”
अपूर्व बोला, “और आप तभी से आप दिन-रात अकेली यहां रह रही हैं। इसकी सूचना क्यों नहीं भेजी? हमारे ऑफिस के तलवलकर बाबू को तो आप जानती हैं। उन्हें क्यों नहीं बुला लिया।”
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