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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


भारती बोली, 'बाबू जी तो अस्पताल में ही मर गए थे।”

“मर गए?” अपूर्व सन्नाटे में बैठा रह गया, “आपके काले कपड़े देखकर इसी प्रकार की किसी भयंकर दुर्घटना का मुझे अनुमान कर लेना चाहिए था।”

भारती बोली, “इससे भी बड़ी दुर्घटना यह हुई कि मां अचानक स्वर्ग सिधार गईं....”

“मां भी मर गईं?” अपूर्व स्तब्ध रह गया। अपनी मां की बात याद करके उसकी छाती में न जाने कैसी कंपकंपी होने लगी। भारती ने किसी तरह आंसू रोके। मुंह फेरने पर उसने देखा कि अपूर्व सजल आंखों से उसकी ओर देख रहा है। दो-तीन मिनट बीतने पर उसने धीरे से कहा, “तिवारी बहुत ही अच्छा आदमी है। मेरी मां बहुत दिनों से बीमार थी। हम सभी जानते थे कि किसी भी क्षण उनकी मृत्यु हो सकती है। तिवारी ने हम लोगों की बहुत सेवा की। मेरे यहां से जाते समय बहुत रोया। लेकिन मैं इतना भाड़ा कैसे दे सकती थी?”

अपूर्व चुपचाप सुनता रहा।

भारती ने कहा, “आपकी वह चोरी पकड़ी गई है। रुपया और बटन पुलिस में जमा हैं। आपको पता है?”

“कहां? नहीं तो।”

“तिवारी को उस दिन जो लोग तमाशा दिखाने ले गए थे, उन्हीं के दल का काम था। और भी न जाने कितने घरों में चोरी करने के बाद शायद चोरी का माल बांटने में झगड़ा हो जाने के कारण उनमें से एक ने सारी बातें खोलकर बता दीं। पुलिस के गवाहों में एक मैं भी हूं। यह पता लगाकर वह लोग एक दिन मेरे पास आए थे। तभी मैंने यहां आकर यह कांड देखा। मुकदमे की तारीख कब है, यह तो मैं ठीक से नहीं जानती। लेकिन सब कुछ वापस मिल जाएगा। यह सुन चुकी हूं।”

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