उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व सिर हिलाकर बोला, “नहीं।”
“अच्छा, अब मैं जा रही हूं। हो सका तो कल आऊंगी।”
जाने से पहले भारती बोली, “सब कुछ है, केवल मोमबत्ती खत्म हो गई है। मैं नीचे से एक बंडल खरीदकर दे जाती हूं।” यह कहकर बाहर चली गई। कुछ देर बाद जब वह मोमबत्ती लेकर आई, तो अपूर्व अपने को संभाल चुका था। मोमबत्ती का बंडल देकर भारती ने कुछ कहना चाहा। लेकिन अपूर्व के मुंह फेर लेने पर उसने भी कुछ नहीं कहा। पर भारती ने जाने के लिए ज्यों ही दरवाजा खोला, अपूर्व एकदम बोल उठा, 'अगर तिवारी पानी चाहे?” भारती ने कहा, “पानी दे दीजिएगा।”
“और अगर करवट बदलकर सोना चाहे?”
“करवट बदलकर सुला दीजिएगा।”
“और मैं कहां सोऊंगा? उसके कंठ स्वर का क्रोध छिपा नहीं रहा, बोला, “बिछौना तो ऊपर के कमरे में पड़ा है।”
पल भर मौन रहकर वह बोली, “वह बिछौना जो आपकी चारपाई पर है आप उस पर सो सकते हैं।”
“और मेरे भोजन का क्या होगा?”
भारती चुप रही। लेकिन इस असंगत प्रश्न से छिपी हंसी के आवेग से उसकी आंखों की दोनों पलकें जैसे कांपने लगीं। कुछ देर बाद बहुत ही गम्भीर स्वर में बोली, “आपके सोने और खाने-पीने का भार क्या मेरे ऊपर है?”
“मैं क्या कह रहा हूं?”
“इस समय तो आपने यही कहा है और वह भी गुस्से से।”
अपूर्व इसका उत्तर न दे सका। उसके उदास चेहरे को देखते हुए भारती ने कहा, “आपको इस तरह कहना चाहिए था-कृपा करके आप इन सबकी व्यवस्था कर दीजिए।”
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