उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व बोला, “यह कहने में कोई कठिनाई तो है नहीं।”
“अच्छी बात है, यही कहिए न।”
“यही तो कह रहा हूं,” कहकर अपूर्व मुंह फुलाकर दूसरी ओर देखने लगा।
“आपने क्या कभी किसी रोगी की सेवा नहीं की?”
“नहीं।”
“विदेश में भी कभी नहीं आए?”
“नहीं, मां मुझे कभी कहीं जाने नहीं देती थीं।”
“तब उन्होंने इस बार कैसे भेज दिया?”
अपूर्व चुप रहा। मां उसे क्यों विदेश जाने पर सहमत हुई थीं यह बात किसी को बताने की इच्छा नहीं थी।
भारती बोली, “इतनी बड़ी नौकरी, आपको न भेजने से कैसे काम चलता। लेकिन वह साथ क्यों नहीं आईं?”
अपूर्व क्षुब्ध होकर बोला, 'मेरी मां को आपने देखा नहीं है, नहीं तो ऐसा न कहतीं। मुझे छोड़ने में उनकी आत्मा को अत्यंत दु:ख हुआ है। दूसरा कारण वह तो विधवा हैं। इस म्लेच्छ देश में कैसे आ सकती थीं?”
“म्लेच्छों पर आप लोगों के मन में इतनी घृणा है? लेकिन रोग तो केवल गरीबों के लिए नहीं बना है, आपको भी तो हो सकता था। तो क्या ऐसी दशा में मां न आतीं?”
अपूर्व का मुंह फीका पड़ गया। बोला, “अगर इस तरह डराओगी तो मैं रात में अकेला कैसे रहूंगा।”
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