उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“न डराने पर भी आप अकेले नहीं रह सकेंगे। आप डरपोक आदमी हैं।'
अपूर्व चुपचाप बैठा सुनता रहा।
भारती बोली, “अच्छा बताइए, मेरे हाथ का पानी पीकर तिवारी की जाति नष्ट हो गई। रोग अच्छा हो जाने पर यह क्या करेगा?”
अपूर्व कुछ सोचकर बोला, “उसने सचेत अवस्था में ऐसा नहीं किया। मरणासन्न बीमारी की दशा में किया है। न पीता तो शायद मर जाता। ऐसी परिस्थिति में भी प्रायश्चित तो करना ही पड़ता है।”
भारती बोली, “हूं। इसका खर्च शायद आपको ही देना पड़ेगा, नहीं तो आप उसके हाथ का भोजन कैसे करेंगे?”
अपूर्व बोला, “मैं ही दूंगा। भगवान करे वह अच्छा हो जाए।”
भारती बोली, “और मैं ही सेवा करके, उसे अच्छा कर दूं?”
अपूर्व कृतज्ञता से गद्गद होकर बोला, “आपकी बड़ी दया होगी। तिवारी बच जाए। आपने ही तो उसे जीवन दान दिया है।”
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