उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
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भारती हंस पड़ी। बोली, “यदि म्लेच्छ जीवनदान दे तो उसमें कोई दोष नहीं, लेकिन मुंह में जल देते ही प्रायश्चित्त होना चाहिए।” फिर जरा हंसकर बोली, “अच्छा, मैं जा रही हूं। अगर कल समय मिला तो एक बार देखने आऊंगी।” यह कहकर जाते-जाते अचानक घूमकर बोली, “और न आ सकूं तो तिवारी के अच्छा हो जाने पर उससे कह दीजिएगा कि अगर आप न आ जाते तो मैं न जाती। लेकिन म्लेच्छ का भी तो एक समाज है। आपके साथ एक ही कमरे में रात बिताने में वह लोग भी अच्छा नहीं मानते। कल सवेरे आपका चपरासी आएगा तो तलवलकर बाबू को खबर दे दीजिएगा। सब व्यवस्था करेंगे। अच्छा नमस्कार।”
अपूर्व ने कहा, “करवट बदलवाने की जरूरत पड़ी तो कैसे बदलूंगा?”
“सावधन होकर बदलिएगा। मैं स्त्री होकर अगर कर सकती हूं तो आप क्यों नहीं कर सकते?”
अपूर्व चुप ही रहा। जाने के लिए भारती ने ज्यों ही दरवाजा खोला, अपूर्व ने भय से आकुल होकर कहा, “और अगर यह बैठ जाए?.... अगर रोने लगे?”
इन प्रश्नों का उत्तर न देकर भारती दरवाजा बंद करके चली गई। जब तक उसके कदमों की आवाज सुनाई देती रही, अपूर्व शांत बैठा रहा। लेकिन खामोशी होते ही स्वयं को न संभाल सका। भय से दौड़ता हुआ बाहर आया। देखा, भारती तेजी से चली जा रही है। मिस भारती न कहकर उसने ऊंची आवाज में पुकारा, “भारती?”
भारती मुड़कर देखते ही अपूर्व दोनों हाथ जोड़कर बोला, “जरा इधर आइए।”
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