उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व ने दृढ़ स्वर में कहा, “बिल्कुल नहीं। मनुष्य के चमड़े का रंग उसकी मनुष्यता का मापदंड नहीं। किसी विशेष देश में जन्म लेना उसका कोई अपराध नहीं है। क्षमा करना, आपके पिता ईसाई थे। इसलिए कोर्ट ने मुझ पर बीस रुपया जुर्माना किया। यह कहां का न्याय है? याद रखिए, इसी कारण एक दिन हमारा सर्वनाश होगा। अकारण मनुष्य को छोटा समझना, यह घृणा-द्वेष, यह अपराध भगवान कभी भी सहन नहीं करेंगे।”
भारती चुप बैठी रही। अपूर्व की बातें समाप्त होते ही उसने मुस्कराकर अपना मुंह दूसरी ओर घूमा लिया। अपूर्व इस तरह चौंक पड़ा, जैसे किसी ने उसके मुंह पर कसकर थप्पड़ मार दिया हो। भारती के किसी प्रश्न पर अब तक उसने ध्यान नहीं दिया था। लेकिन अब वह अग्नि शिखा की तरह उसके दिमाग में सनसनाते हुए चक्कर काटकर उसे एकदम ही वाक्यहीन कर गए।
कुछ क्षणों के बाद जब भारती ने नजर उठाई तो उसके होठों पर हंसी नहीं थी। बोली, 'आज शनिवार है। हमारा स्कूल बंद है। लेकिन समिति का काम होगा। चलिए न, नीचे चलकर आपका डॉक्टर साहब से परियच कराकर आपको 'पथ के दावेदार' का सदस्य बनवा दूं।”
“क्या वह अध्यक्ष हैं?”
“अध्यक्ष नहीं, वह हम लोगों की जड़ हैं। धरती के भीतर रहते हैं। उनका काम आंखों से दिखाई नहीं देता।”
“क्या इस सभा के सभी सदस्य ईसाई हैं?”
“नहीं। मेरे अतिरिक्त सभी हिंदू हैं।”
“लेकिन महिलाओं की आवाज भी तो सुन रहा हूं।”
“वह सब हिंदू हैं।”
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