उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“जाना तो है। लेकिन आपको छोड़कर जाने की इच्छा नहीं हो रहीं।” यह कहकर वह हंस पड़ी। लेकिन अपूर्व के कान तक लाल हो उठे। दीवार पर सजे कच्चे झाऊ के पत्तों पर अंकित कुछ अक्षरों पर नजर डालकर अपूर्व बोला, “वहां पर वह क्या लिखा हुआ है?”
“आप पढ़ सकते हैं।”
अपूर्व बोला-”पथ के दावेदार”-”इसका क्या अर्थ है?”
“यह हम लोगों की संस्था का नाम है। इस विद्यालय का संचालक भी यही है। आप इसके सदस्य बनेंगे?”
“इसमें क्या करना होगा?”
भारती बोली, “हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है। चलिए हमारे साथ?”
“हमारा राष्ट्र पराधीन है भारती! स्टेशन की एक बेंच पर बैठने तक का हमें अधिकार नहीं है। अपमानित होने पर दावा करने का उपाय नहीं।” कहते-कहते उस दिन की लांछना, फिरंगी लड़कों के बूटों के आघात से लेकर स्टेशन मास्टर द्वारा निकाले जाने तक की सभी अपमानजनक बातों को याद करके उसकी आंखें लाल हो उठीं। बोला, “हमारे बैठने से बेंच अपवित्र हो जाती है। हमारे रहने से मकान की हवा बिगड़ जाती है। जैसे हम मनुष्य ही नहीं हैं। अगर हम लोगों की यही साधना हो तो मैं आप लोगों के दल में हूं।”
“आप क्या मनुष्य की पीड़ा का कुछ पता पा सके हैं अपूर्व बाबू? क्या वास्तव में मनुष्य के छूने में, आपत्ति की कोई बात नहीं है? उसके शरीर की हवा लगने से दूसरे के मकान की हवा क्या गंदी नहीं हो जाती?”
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