उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
भारती ने कहा, “कहां है? आप किसी दिन सवेरे से देखिए कि सच कहती हूं या झूठ।”
अपूर्व के मुंह से अनजाने ही एक लम्बी सांस निकल गई। बोली, “मुझे देखने की क्या जरूरत है?” फिर जरा रुककर बोला, “स्कूल से आपको क्या वेतन मिलता है?”
भारती हंसी दबाकर बोली, “आप भी खूब हैं? क्या वेतन की बात पूछने पर उसका अपमान नहीं होता?”
अपूर्व क्षुब्ध कंठा से बोला, “मैंने अपमान करने के लिए नहीं कहा। जब नौकरी ही कर रही हैं....”
भारती ने कहा, “न करके क्या भूखा मर जाने को कहते हैं?”
“ऐसी नौकरी से भूखा मरना ही अच्छा है। हमारे ऑफिस में एक जगह खाली है। वेतन एक सौ रुपए माहवार मिलेगा। शायद दो घंटे से अधिक काम नहीं करना पड़ेगा।”
“आप मुझे वह काम करने को कहते हैं?”
“क्या हर्ज है?”
भारती बोली, “नहीं, मैं नही करूंगी। आप उसके मालिक हैं। काम में कभी भूल हुई तो लाठी लेकर द्वार पर आ खड़े होंगे।”
अपूर्व ने उत्तर नहीं दिया। मन-ही-मन समझ गया कि भारती ने केवल मजाक किया है। फिर बोला, “मालूम हो रहा है कि आप लोगों का स्कूल शुरू हो गया। बच्चों ने पढ़ना शुरू कर दिया है।”
भारती बोली, “ऐसा होता तो शोर कुछ कम रहता। लगता है कि उनके शिक्षक विषय का निर्वाचन कर रहे हैं।”
“आप नहीं जाएंगी?”
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