उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
भारती हंसकर बोली, “तिवारी घर जाना चाहता है तो चला जाए। न जाने पर वह अच्छा भी न होगा।”
अपूर्व बोला, “इसका मतलब यह है कि मेरा यह अभियोग गलत है कि आप हम लोगों की खोज-खबर नहीं रखतीं।”
भारती फिर हंसकर बोली, “परसों बारह बजने से पहले ही कोर्ट जाकर रुपया और चीजें वापस ले आइएगा। भूल न जाइएगा।”
“लेकिन उस पर तो आपके हस्ताक्षर होने जरूरी हैं।”
“मैं जानती हूं।”
“आपके साथ तिवारी की भेंट नहीं हुई?”
“नहीं। लेकिन आप जाकर उस पर बेकार नाराज न हों।”
अपूर्व बोला, 'झूठा नहीं, सच्चा क्रोध करना उचित है। अपने प्राण बचाने वाले के प्रति मन में कृतज्ञता रहना उचित है।”
भारती बोली, “वह तो है ही। नहीं तो वह मुझे जेल भेजने की भी कम-से-कम चेष्टा जरूर करता।”
अपूर्व इस संदेह को समझ गया। नीचा मुंह करके बोला, “आप मुझ पर भयंकर रूप से नाराज हैं।”
भारती बोली, “कभी नहीं। सारे दिन स्कूल में बच्चों को पढ़ाकर घर लौटकर फिर समिति की सेक्रेटरी की हैसियत से अनेक चिट्ठी-पत्री लिखने के बाद बिस्तर पर लेटते ही सो जाती हूं। नाराज होने के लिए मेरे पास समय ही नहीं है।”
अपूर्व बोला, “ओह, नाराज होने तक का समय नहीं है।'
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