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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


उसी रास्ते चलकर अपूर्व को लाल रंग का काठ का एक मकान दिखाई दिया। रात हो चुकी थी। सुनसान था। ऊपर की खुली खिड़की से बत्ती की रोशनी आ रही थी। किसी से पूछने के लिए वहीं खड़ा हो गया। उसे निश्चय हो गया कि भारती यहीं रहती है।

पंद्रह मिनट बाद दो-तीन आदमी बाहर निकले। उसे देखकर एक पूछा, “कौन हैं? किसे चाहते हैं?”

अपूर्व ने लज्जित होकर पूछा, “मिस जोसेफ नाम की कोई महिला यहां रहती है?”

वह बोला, “अवश्य रहती है। आइए।”

अपूर्व की जाने की इच्छा न थी। उसे दुविधा में देख वह आदमी बोला, “आप कब से खड़े थे? आइए न, हम आपको पहुंचा दें।” यह कहकर वह आगे हो लिया।

“चलिए,” कहकर वह उसके पीछे-पीछे मकान के निचले कमरे में पहुंच गया। कमरा काफी बड़ा था। छत से एक बहुत बड़ी बत्ती लटक रही थी। कुछ टेबल-कुर्सियां, एक ब्लैकबोर्ड और दीवारों पर चारों ओर तरह-तरह के आकार और रंगों के नक्शे टंगे हुए थे। यही नया स्कूल है। देखते ही अपूर्व पहचान गया।

वहां चार-पांच स्त्रियों-पुरुषों में किसी विषय पर बहस हो रही थी। सहसा एक अपरिचित पुरुष को आते देख सब चुप हो गए। अपूर्व ने एक बार उन लोगों की ओर देखा। फिर जिसके साथ आया था उसी के पीछे-पीछे चढ़ गया। भारती कमरे में ही थी। अपूर्व को देखते ही उसका चेहरा चमक उठा। कुर्सी पर बैठाकर बोली, “इतने दिनों तक आपने मेरी खोज-खबर खूब ली?”

अपूर्व बोला, 'आपने भी तो हम लोगों की खोज-खबर नहीं ली।”लेकिन यह उत्तर उचित नहीं था, यह कहते ही वह समझ गया।

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