उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
इस इलाके में अपूर्व पहले कभी नहीं आया था। काफी दूर चलने पर दाईं ओर नदी के किनारे रास्ता दिखाई दिया। एक आदमी से पूछा, “इधर साहब-मेम लोग कहां रहते हैं?” प्रत्युत्तर में उस आदमी ने आसपास के छोटे-बड़े बंगले दिखा दिए। उनकी सजावट देखकर अपूर्व समझ गया कि उसका प्रश्न गलत था। संशोधन करके पूछा, “अनेक बंगाली भी तो यहां रहते हैं? कोई कारीगर, कोई मिस्त्री है।”
वह आदमी बोला, “बहुत हैं। मैं भी एक मिस्त्री हूं। तुम किसको खोज रहे हो।?”
अपूर्व ने कहा, “देखो मैं जिसे खोज रहा हूं.... अच्छा जो बंगाली ईसाई अथवा....”
वह आदमी आश्चर्य से बोला, “क्या कह रहे हैं? बंगाली-फिर ईसाई कैसे? ईसाई हो जाने पर फिर कोई बंगाली रह जाता है क्या? ईसाई, ईसाई है। मुसलमान, मुसलमान है। यही तो....।”
अपूर्व बोला, 'अरे भाई, बंगाल का आदमी तो है। बंगला भाषा बोलता है।”
वह गर्म होकर बोला, “भाषा बोलने से ही हो गया? जो जात देकर ईसाई बन गया, उसमें और क्या पदार्थ रह गया महाशय? कोई भी बंगाली उसके साथ आहार-व्यवहार करे तो देख लूं। न मालूम कहां से मास्टरी करने कुछ लड़कियां आ गई हैं। बच्चों को पढ़ाती हैं-बस, इसीलिए कोई भी क्या उनके साथ खा रहा है या बैठ रहा है?”
अपूर्व ने पूछा, “वह कहां रहती हैं-आप जानते हैं?”
वह बोला, “जानता क्यों नहीं। इस रास्ते से सीधे नदी के किनारे जाकर पूछिए कि नया स्कूल कहां है, छोटे-छोटे बच्चे भी बता देंगे।” यह कहकर वह अपने काम पर चला गया।
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