उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
तिवारी जरा हंसकर बोला, “जल्दी माता जी को है। शायद लोग उनको यह कहकर डराते हैं कि बर्मा में लड़के बिगड़ जाते हैं।”
अपूर्व को क्रोध आ गया। बोला, 'देख तिवारी, मुझे पंडिताई दिखाने की जरूरत नहीं है। मां को रोज-रोज चिट्ठियां क्यों लिखता रहता है? मैं बच्चा नहीं हूं।”
अकारण क्रोध से तिवारी पहले विस्मित हुआ। बीमारी के बाद से उसका दिमाग अच्छा नहीं था। रोष भरे स्वर में बोला, “आते समय यह बात मां को कहकर न आ सके? ऐसा होने से मैं बच जाता। जात-धर्म नष्ट करने के लिए जहाज पर न चढ़ना पड़ता।”
अपूर्व ने उसके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। खूंटी से कोट नेकटाई लेकर पहनता हुआ तेजी से कमरे से निकल गया।
तिवारी गरम होकर बोला, “कल रविवार को जहाज चटगांव जाता है। मैं उसी से घर चला जाऊंगा, कहे देता हूं।”
अपूर्व जाते-जाते बोला, “न जाओ तो हजारों सौगंधें रहीं।”
अपूर्व के जाने का एकमात्र स्थान था तलवलकर का घर। लेकिन रास्ते में उसे याद आया कि आज शनिवार है। उसका पत्नी के साथ थियेटर जाने का प्रोग्राम है। तभी उसे अचानक भारती की याद आ गई। उसका आहत, अपराधी मन अपने ही प्रति बार-बार कहने लगा- वह अच्छी तरह ही है। उसे कुछ भी नहीं हुआ। नहीं तो इतनी बड़ी जीवन-मरण की समस्या में खबर भी न देती? तेल के कारखाने के आसपास ही कहीं उसका नया मकान है यह बात वह भूला नहीं था। उसे खोजकर ढूंढ़ निकालने की कल्पना से उसका मन नाच उठा।
लेकिन इसे महसूस करके मन के चोर के पकड़े जाने की लज्जा से भी वह नहीं बच सका। शायद वह मुझे नहीं चाहती। शायद वह मुझे देखकर उपेक्षा करे। यह सोचकर वह स्वयं को सैकड़ों तरह से समझाने लगा। पुलिसवाले उससे हस्ताक्षर लेना चाहते हैं। इसी काम से वह आया है। वह कैसी है, कहां है, यह सब कौतूहल उसे अकारण नहीं है। इस तरह इतने दिनों बाद जाने का वह कोई उलाहना भी नहीं दे पाएगी।
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