उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
यह सब सोचकर वह मन-ही-मन व्याकुल हो उठा। एक कुर्सी पर बैठकर नेकटाई-वेस्ट कोट खोलते-खोलते उन दोनों में बातचीत शुरू हुई थी। उसके हाथ का काम वहीं रुक गया। मुंह से एक भी शब्द नहीं रहा। कुर्सी पर काठ की पुतली की तरह बैठा रहा।
कुछ देर बाद तिवारी धीरे-धीरे बोला, “छोटे बाबू, मकान मालिक का आदमी आया था। अगर तीसरी मंजिल का कमरा लेना हो तो इसी महीने बदल लेना चाहिए, वह कह गया है। मुझे चिंता हो रही है कि कोई फिर आ जाए।”
अपूर्व ने पूछा, “और कौन आने वाला है?”
तिवारी बोला, “आज मांजी का एक पोस्टकार्ड मुझे मिला है। दरबान से लिखवाकर भेजा है उन्होंने। मैं अच्छा हो गया इसके लिए बहुत प्रसन्नता प्रकट की हैं। दरबान का भाई अपने गांव छुट्टी लेकर जा रहा है। उसके हाथ पांच रुपए विश्वेश्वर की पूजा के लिए भेजे हैं।”
अपूर्व बोला, “ठीक तो है। मां तुझे बेटे जैसा प्यार करती है तिवारी।”
तिवारी बोला, 'बेटे से भी अधिक। मैं तो चला ही जाऊंगा। मां तो चाहती हैं कि छुट्टी लेकर हम दोनों ही चलें। चारों ओर रोग-शोक....”
अपूर्व बोला, “रोग-शोक-मरण कहां नहीं है? कलकत्ते में नहीं है? तूने शायद बहुत-सी बातें लिखकर उन्हें डरा दिया है।”
“जी नहीं, तिवारी बोला, “काली बाबू पीछे पड़ गए हैं। सभी की इच्छा है कि वैसाख के आरम्भ में ही यह शुभ कार्य सम्पन्न हो जाए।”
काली बाबू की छोटी लड़की को माता जी ने पसंद किया है। इस बात का आभास उनके कई पत्रों में भी था। तिवारी की बात अपूर्व को अच्छी नहीं लगी। बोला, “इतनी जल्दी किस लिए? अगर काली बाबू को बहुत अधिक जल्दी हो तो वह और कहीं प्रबंध कर सकते हैं।”
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