उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“यदि वह देखभाल न करती तो तू कब का मर चुका होता तिवारी! मुझसे भी भेंट न होती।”
तिवारी कुछ नहीं बोला।
अपूर्व ने फिर कहा, 'आकर मैंने देखा कि अंधेरी कोठरी में तू है और वह है, तीसरा कोई नहीं। कहां जाना होगा, कहां सोना होगा, इसका कुछ भी निश्चय नहीं। दो दिन पहले ही उसके माता-पिता की मृत्यु हुई थी। बड़े कड़क दिल की लड़की है तिवारी!”
तिवारी चुप न रह सका। बोला, “वह कब चली गई?”
अपूर्व बोला, “मेरे आने के दूसरे ही दिन। सवेरा होते-न-होते ही आवाज आई, 'अब मैं जा रहीं हूं,' कहकर एकदम चली गई।'
“नाराज होकर गई थी क्या?”
“नाराज होकर?” अपूर्व ने जरा सोचकर कहा, “नहीं जानता, शायद हो सकता है। उसे समझाया भी तो नहीं जा सकता, नहीं तो तेरा खयाल रहता था, एक बार समाचार जानने भी नहीं आई कि तू अच्छा हो गया है या नहीं।”
यह बात तिवारी को अच्छी नहीं लगी। बोला, “हो सकता है। स्वयं अपने ही रोग-शोक के झमेले में पड़ गई हों।”
“अपने रोग-शोक में?” अपूर्व चौंक पड़ा। उसके संबंध में कई दिन बहुत-सी बातें याद आई हैं, लेकिन ऐसी आशंका मन में पैदा नहीं हुई। अपूर्व को एकदम ध्यान आया कि उनके नए डेरे पर तो देखने सुनने वाला भी कोई नहीं है। हो सकता है अस्पताल वाले ले गए हों। हो सकता है अब तक जीवित भी न हो।
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