उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
एक दिन बासी हल्दी से तरकारी बना रहा था कि भारती की झिड़की सुननी पड़ी। और जिस दिन स्नान किए बिना ही उसने रसोई तैयार की, भारती ने उसके हाथ का भोजन नहीं खाया।
तिवारी गुस्से से बोला, “तुम लोगों में इतना विचार है। देखता हूं, तुम तो माता जी को भी पार करके आगे बढ़ रही हो?”
भारती ने कोई उत्तर नहीं दिया। हंसती हुई चली गई।
बर्मा में अब वह कभी नहीं लौटेगा। जाने से पहले भारती से भेंट होने की आशा भी नहीं है। दिन-प्रतिदिन एक ही प्रतीक्षा में चुपचाप बैठे रहने से उसकी छाती में भारी कसक उठती रहती है।
उस दिन ऑफिस से लौटकर अपूर्व ने अचानक पूछा, “भारती का घर कहां है तिवारी?”
तिवारी बोला, “मैंने क्या जाकर देखा है बाबू?”
“जाते समय तुम्हें बताया हो शायद?”
“मुझे बताने की भला क्या जरूरत थी।”
अपूर्व बोला, “मुझे बताया तो था लेकिन ठीक से याद नहीं रहा। कल पता लगाना।”
तिवारी के मन में तूफान मचल उठा।
अपूर्व बोला, “पुलिस उस चोरी का माल देना चाहती है लेकिन भारती के हस्ताक्षर आवश्यक हैं।”
तिवारी कुछ देर चुप रहकर बोला, 'उस दिन वह यही सूचना देने आई थी। लेकिन मेरी हालत देखकर फिर लौटकर न जा सकी।”
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