उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
तिवारी हंसकर कहता, “तुम नहीं जान सकीं। इसलिए सभी को वैसा ही समझती हो। लेकिन अगर बाबू को एक बार भी अच्छी तरह जान जातीं तो तुम भी कहतीं कि ऐसा मनुष्य संसार में दूसरा कोई नहीं है।”
भारती कहती, “नहीं है, यह तो मैं भी कहती हूं। तभी तो जिसने चोरी होने में रुकावट डाली उसी को चोर समझ बैठे।”
इस विषय में अपना अपराध याद करके तिवारी दु:खी हो उठता। बात दबाकर कहता, “लेकिन तुमने भी तो काम कम नहीं किया। जानबूझ कर बाबू पर बीस रुपए जुर्माना कराया।”
भारती कहती, “लेकिन उस दंड को तो मैंने स्वयं ही झेला था तिवारी तुम्हारे बाबू को तो देने नहीं पड़े।”
“नहीं देने पड़े? मैंने अपनी आंखों से देखा कि दो नोट देकर अदालत से बाहर आए।”
“और मैंने भी तो अपनी आंखों से देखा था तिवारी कि तुमने कमरे में घुसते ही दो नोट नीचे से उठाकर अपने बाबू को दिए थे।”
तिवारी के हाथ की कलछुल हाथ-की-हाथ में रह गई, “ओह, यह सच है दीदी।”
“लेकिन सब्जी जली जा रही है तिवारी।”
तिवारी ने कहा, “बाबू से मैं यह बात जरूर कहूंगा दीदी।”
भारती हंसकर बोली, “तो क्या होगा? मैं तुम्हारे बाबू से डरती थोड़े ही हूं।”
लेकिन यह आश्चर्यजनक बात छोटे बाबू से कहने का अवसर तिवारी को नहीं मिला। कब और किस तरह मिलेगा, यह भी नहीं जान सका।
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