उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
लेकिन इस स्वार्थ और भय के अतिरिक्त तिवारी के हाथ में एक बात और भी थी। वह बात जितनी मधुर थी उतनी ही वेदनापूर्ण भी थी। अपूर्व के मामो चले जाने के बाद इस लड़की के साथ उसका घनिष्ट परिचय हुआ था। जिस दिन अचानक उसकी मां की मृत्यु हुई, उस समय तक तिवारी का खाना-पीना भी नहीं हुआ था। लड़की ने रोते हुए आकर उसका दरवाजा खटखटाया। दो दिन पहले ही जोसेफ मरा था। किवाड़ खोलते ही भारती कमरे में आकर उसके दोनों हाथ पकड़कर ऐसी रोई कि क्या कहें। तिवारी का पकाया हुआ भात हांडी में ही रह गया। सारे दिन चिट्ठी लेकर न मालूम कहां-कहां दौड़ना पड़ा। दूसरे दिन जाते समय उसकी आंखों के आंसू जैसे रुकना नहीं चाहते थे। इस बीच उसने भारती को कभी दीदी, कभी बहिन भी कहकर पुकारा था। चार-पांच दिन तक स्वयं ही रसोई बनाकर खिलाई थी। फिर उसके बीमार पड़ जाने पर भारती ने उसकी कितनी सेवा की थी, यह बात वह अच्छी तरह जानता था। कभी सोचता भी न था। याद आते ही जाति नष्ट होने की बात याद आ जाती थी। सुबह स्नान करके भीगे बालों की विशाल राशि पीठ पर लटकाए प्रतिदिन उसका समाचार जानने के लिए आया करती थी। रसोई घर में नहीं जाती थी। कोई चीज नहीं छूती थी। चौखट के बाहर फर्श पर बैठकर कहती, “आज क्या-क्या पकाया तिवारी? देखूं तो।”
“दीदी, आसन बिछा दूं?”
“नहीं, फिर चौका धोना पड़ेगा।'
“क्या आसन भी छूने से बिगड़ता है?”
भारती कहती, “तुम्हारे बाबू तो सोचते हैं कि मेरे रहने से समूचे मकान को छूत लग गई है। अपना मकान होता तो शायद जल छिड़ककर पवित्र कर लेते। यही बात है न तिवारी?”
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