उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
|
1 पाठकों को प्रिय 12 पाठक हैं |
भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
कभी सोचा था मेरा भी एक घर होगा तो तुम्हें बुलवाऊँगी। तुम्हारे लिए न सही तुम्हारे बच्चों के लिए कुछ करूँगी।
कभी तो भगवान मेरी भी सुनेंगे औऱ जैसा अधिकार दूसरों को दिया है मुझे भी देंगे औऱ मैं सर ऊँचा करके कहूँगी मैने यह किया और यह काम मेरा है और यह खानदान मेरा है औऱ यह घर मेरा है।
उस दिन ....उस दिन दीदी मैं तुम्हारे सारे अहसान चुका दूँगी।
....परन्तु दीदी, यह ...यह-यह कैसे नये बन्धन हैं कि अपना कुछ पाने के लिए में अपने-आपकी बाजी हारती जा रही हूँ?
तुमने मुझे इतने बडे़ तूफान में कैसे ढकेल दिया कि मैं सदा एक बेबस तिनके की तरह इधर से उधर बहती रहूँगी।
सुना है कि घर में इतने लोग हैं - तीन दूसरी बहूएँ हैं, सास हैं, ससुर है, छोटे देवर हैं, नन्दें हैं। उनके बच्चे हैं औऱ रिश्ते नाते औऱ सगे सम्बन्धी हैं। हाय, दीदी मैं सब कासे कर पाऊँगी? ये इतने सारे सम्बन्ध कैसे निभा पाऊँगी?
और....औऱ मैं कर भी क्या पाऊँगी? सुना है पिता जी का हुकुम घर का अन्तिम हुक्म होता है औऱ उनकी आवाज में शेष समस्त आवाजे दब जाती हैं।
दीदी !....दीदी फिर क्या हो? तुम्ही बताओ दीदी। मैं क्या-क्या कहाँ-कहाँ समझ पाऊँगी और जो कहीं गलती की तो उन ठोकरों को कैसे सह सकूँगी जिनका उदाहरण कल रात तुमने देखा। हे भगवान ! अपने पिछले जन्मों में कौन-कौन क्या-क्या पाप किये थे कि इस जन्म में तू माफ ही नहीं कर सकता।
|