उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
आँखें खोलो दीदी, आँखें खोलो दीदी। देखो, तुम्हारी बहन इस तरह लुट रही है। देखो, तुम्हारी लाड़ली इतने सारे अजनबियों के गोल में घिरी जाने कहाँ ले जायी जा रही है औऱ तू इस तरह चुप-चाप सोई है औऱ तुम्हारी आँखों में खून के आँसू जम गये हैं औऱ तुम्हारे होंठ इस तरह मूक औऱ निर्जीव हो गये हैं।
दीदी-दीदी उठो....आह ....मुझे आखिरी बार अपने गले से लगा लो वरना फिर कभी मुझे अपने गले ले न लगा सकोगी।
उठो, तुम्हें इसी क्षण का इन्तजार था न।
और आज जब वह क्षण आ पहुँचा तो तुम इस तरह रूठी-रूठी लेटी हो?
(आँसू)
दीदी, लोग मुझे तुम्हारे इन कदमों से छीने लिये जा रहे हैं। तू इन्हें रोकेगी भी नहीं? तू विरोध भी नही करेगी?
(और आँसू...... और आँसू )
हाय, दीदी। आँखें खोल कर मुझे आखिरी बार देख तो लो।
मेरी सखिय़ाँ कहती हैं कि मैं अत्यन्त सुन्दर लग रही हूँ। मैने लाल रेशमी जोडा़ पहन रखा है। मेरे दोनों हाथ सोने की चूडि़यों से लदे हैं मेरे होंठों की सुर्खी चमक रही है। मेरे कानों में झूमर लटके हैं। मेरी नाक में सोने की नथुनी झूल रही है। मेरे गले में न जाने कितने वजन का हार पहनाया गया है। मेरे पैरों में पाजेब बाँधी गई है। मेरे चेहरे पर सितारे नाच रहे हैं मेरी आँखों मे काजल की डोरियाँ तड़प रही हैं। मेरे माथे पर अफशाँ चुन दी गई है।
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