उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
वह उसे अच्छा लग रहा है। बहुत अच्छा लग रहा है। दिल में एक अजीब-सी जगह बना ली है उसने। बडी़ मासूमियत से विचित्र सी बातें पूछ रहा हैं। अब जब सभी चले गये हैं, उसने मेरा घूंघट पलट दिया है।
नन्दी उसे मिले हुए रुपये गिन रहा है।
वह नन्दी को देख रही है।
चौड़ा माथा, रोशन आंखें, माथे पर अस्त-व्यस्त बालों के गुच्छे बार-बार आ जाते हैं जिन्हें वह बेख्याली में गर्दन के हल्के से झटके से पीछे हटा देता है।
लगता है जीवन की बहुत-सी बातों में यह लड़का बहुत लापरवाह है चेहरे पर एक अजीव कान्ति है। बातों में एक अल्हड़पन है। हँसता है तो चेहरे पर नूर के रंग बिखर जाते हैं। लगता है सारा अस्तित्व हँस रहा है। आत्मा चेहरे से हरदम झलकती है बनावट कहीं है ही नहीं।
वह उसे बडी़ देर तक देखती रही।
अचानक आप ही आप एक ख्याल उसके मस्तिष्क में कौध आया। एक छनाके की तरह एक बात आई औऱ विलीन हो गई।
उसके भाई की भी तो उसने एक झलक देखी थी जब वह उसके करीब लकडी़ की चौकी पर बैठा था और सामने पवित्र अग्नि जल रही थी औऱ पण्डि़त मंत्र उगल रहे थे और उसने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया था औऱ दोनों घी में उंगलियाँ डुबो-डुबो कर 'स्वाहा-स्वाहा' कर रहे थे।
उसी समय एक क्षण के लिए घूंघट के कोने से उसने उसके चेहरे की एक झलक देखी थी। उस ज्वलन्त चेहरे की एक ही झलक वह देख पाई थी औऱ वह एक झलक ही उसे इतनी अच्छी लगी थी कि उसने अपनी आंखें बन्द कर ली थीं औऱ उस झलक को आंखों के आंचल में इस तरह छुपा लिया था जैसे उसे सारी दुनिया से छुपा रही हो।
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