उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
उस समय तुमने मुझे अपने साथ लिपटा लिया था औऱ कहा था “सुधा अब जब तुम मिल गई हो, यूं लगता है जीवन की मंजिल पा गया हूँ। कितना सकून महसूस होता है, कितनी शान्ति मिलती है?"
नहीं जानती थी तुम उस समय सच कह रहे थे या अब सच कह रहे हो। अगर सचमुच मैं ही तुम्हारी शान्ति हूं तो मेरे बिना तुम्हारे सारे काम चलते कैसे होंगे?
क्या ऐसा जीवन बिताना तुम्हें पसंद है? इस तरह छोड़कर चले गये हो कि आने का नाम ही नहीं लेते।
नौकरी...... नौकरी........ नौकरी। यह बैरन नौकरी भी कैसी है कि इतनी कठोर जुदाई का कारण बन गई है?
महीना भर तो तुम इस तरह मुझे अपनी बांहों में लिये रहे। मुझे सारी दुनियाँ को भूल जाना सिखाया। मेरे दिल से सारे भय, सारे डर मिटा दिये। मुझे नयी राह पर चलना सिखाया। मेरे जीवन को फूलों का निखार दिया। मेरे निर्जीव अस्तित्व को नयी जिन्दगी दी।
हां, सच कहती हूं यह एक महीना तो मेरे पिछले सारे जीवन पर भारी था। इतना सुख, इतना आनन्द इतनी खुशी तो कभी मिली ही न थी।
तुमने इतना सुख दिया और फिर अचानक एक दिन सब कुछ छोड़कर चले गये।
"जल्दी आओगे," कहा था।
दिन रात राह तकती हूं। कितने ही दिन बीत गये।
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