उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
कब आओगे? कब आओगे? कब इन आंसुओं को पोंछने के लिये आओगे?
हां, मेरे अपने। मेरी इन आंखों में तो सचमुच आंसू भर गये हैं। इन आंखों में जिनमें एक बार पहले, तुम्हें याद होगा, उस पहले दिन, जब मुझे तुम्हारे कदमों में ला डाला गया था, उस दिन ये आंखें आंसुओं से ही तो झिलमिल थीं। याद है उन आंसुओं को देख कर तुम किस कदर तड़प उठे थे।
अपने होठों से चूम चूम कर तुमने उन आंसुओं को सुखाया था। औऱ कहा था-
"नहीं....... नहीं..... नहीं.... ।" तुम्हारी आवाज में कितना दर्द था, कितनी ज़िद थी। कितना आग्रह था।
"नही.....नहीं, यह आंखें रोने के लिये नहीं हैं। यह आंखें रोने के लिए नहीं हैं मेरी रानी! यह आंखें रोने के लिए नहीं हैं। यह झील के कटोरे तो सुन्दरता के चिन्ह हैं। यह आंखें तो मेरी मंजिल के निशान हैं. मेरे जीवन की उपलब्धि हैं।
यह आंखें तो तो वे सितारे हैं जो आकाश की शोभा बढा़ते हैं।
नहीं मेरी सुधा ! अब तुम कभी रोओगी नहीं। अब इन आंखों में कभी आंसू लाओगी नहीं। अब आंसुओं की जगह ले ली है हंसी के फौवारों ने, जीवन के धारों ने।
वचन दो, वचन दो।"
हां.....हाँ, उस दिन तो तुमने इसी तरह मुझे अपने-आपको भूलने पर विवश कर दिया था कि पता भी न चला औऱ आंसुओं की जगह ले ली मुस्कुराहटों ने।
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