उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
मैनें तुम्हें बचन भी तो दिया था परन्तु अब देखो न, ये आंखें तो आप ही आप बही जा रही हैं। हंसने का प्रयास करती हूं तो और आंसू निकल आते हैं इन आंखों को तो उन्हीं होठों का इन्तजार है जिन्होंने चूम-चूम कर उनके आंसू ले लिये थे और मुस्कराहट प्रदान की थीं।
परन्तु आज कहां हैं वे होंठ? क्या इन आंखों के आँसू सुखाने न आओगे?
सुधा
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मेरे सब कुछ,
यह तुमने क्या कहा्? अभी औऱ इन्तजार करना होगा?
इन्तजार? अभी दो तीन महीनों तक छुट्टी नहीं मिल सकेगी। काम बहुत बढ़ गया है यही शब्द बार-बार मेरे कानों में गूंज रहे हैं और दबी-दबी सिसकियां मन ही मन में घुट रही हैं।
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