उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
नहीं-नहीं, दो तीन महीने और? इतना लम्बा अरसा?
इतना लम्बा अरसा तो मैं तुम्हारे बिना जी न सकूंगी। सच कहती हूं, जी न सकूगी।
चाँद के बिना इतनी लम्बी अंधेरी काली रातें।
तुम भी नहीं, नींद भी नहीं कोई सुख भी नहीं।
जियूं तो कैसे? मैं तो बहुत कमजोर हूं। बहुत दुर्बल जो हूं। नारी हूं न। सहन करती रहती हूं। परन्तु प्रकृति इतना दुर्बल जो बनाया है। सहन भी कब तक कर सकती हूं। दिल फट न जाये कहीं।
नहीं मेरे राजा, इतना अन्याय न करो। तुमने तो कहा था अगर लम्बी छुट्टी न मिली तो बीच-बीच में आया करोगे। कभी एक आध दिन के लिए आकर फिर चले जाया करोगे या फिर मुझे ही अपने पास बुलवा लोगे।
परन्तु जाने तुम वहां जाकर सब भूल क्यों गये? मेरे आंसुओं का भी तुम पर कोई असर नहीं। मेरे हृदय की सारी बातें बूझने का दावा करने वाले, आज यह कैसी दूरी हो गई है कि आत्मा इस तन्हाई के बोझ तले दबी सिसक रही है औऱ तुम तक मेरी कोई आवाज नहीं पहुंच रही हैं।
तुम तो कहते थे कि हमारा जन्म-जन्म का रिश्ता है। आत्मायें एक दूसरे के सदा करीब रहती हैं।
मुझे तो यूं लगता था कि मेरी हर-हर बात तुम मेरे कहे बिना जान लेते थे। मेरी मूक धड़कनों से सब समझ जाते थे। फिर आज यह क्यों हो गया है कि मैं तुम्हें इस तरह पुकारती रहती हूं और मेरी आवाजें, मेरे नाले, मेरी फरियादे मेरे ही पास लौट आती हैं।
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