उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
कहां गये तुम्हारे वे दावे?
सुनो ! सुनो, मेरे अस्तित्व का कण-कण आंसू बन कर आज तुम्हें बुला रहा है।
हां, अब तो तुम्हारे बिना रह पाऊंगी नहीं। सच कहती हूँ। हाथ जोड़कर विनती करती हूँ ज्यादा नहीं तो एक-आध दिन के लिए आकर अपनी इस पुजारिन के आंसू पोंछ जाओ।
आओ..... आओ, राधा के प्रियतम..... मेरे कन्हैया.... आओ.... आओ....
सुधा
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मेरे जीवन के मालिक,
यह रैन अंधेरी औऱ मेरी नन्हीं सी जान।
यह बैरन रातें आती ही क्यों हैं?आस पास इतना सन्नाटा, इतनी खामोशी, स्तब्ध्तता। इतना अकेलापन, कोई भी तो नहीं होता साँय-साँय करती हवाये चारों ओर से घेरे रहती हैं औऱ मैं इस चारों ओर के सन्नाटों औऱ अँधेरों में घिरी रोती रहती हूँ।
तुम्हें याद करती रहती हूँ जागती रहती हूँ।
परन्तु तुम....निर्दयी.....कठोर..... हाँ.....हाँ....इन आँसुओ को कैसे रोकूँ? इन अँधेरों से अपनी अपनी जान कैसे बचाऊँ? ये अँधेरे तो मुझे निगलने के लिए बढ़ते आ रहे हैं।
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