उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
परन्तु कोई कुछ जान भी नहीं पाता कि मैं कुछ कर भी रही हूँ। सारी अच्छाइयों का सेहरा लेने के लिए तुम्हारी तीनों भौजाइयाँ जो सदा माँ की मुट्ठी-चापी किया करती हैं, और उनके सरों पर सेहरा बाँधने के लिए तुम्हारे भाई जो हैं। जो सदा पिता जी के आसपास रहते हैं।
मुझे गिला किसी से नहीं है। मुझे तो काम से मतलब है। सेवा से काम है। मुझे क्या, कोई मेरी प्रशंसा करे या झिड़कियाँ दे। मैं तो अब एक निर्जीब मशीन बन गई हूँ।
इतना थक जाती हूँ कि रात को जब बिस्तर पर लेटती हूँ और तुम्हारी याद को अपने ख्यालों में बुलाने का प्रयास करती हूँ तो दुखता थका माँदा शरीर अपने सारे द्वार बन्द कर लेता है और आँखें यूँ बन्द हो जाती हैं मानों कभी खुलेंगी ही नहीं।
इसलिए मुझे माफ करना। मेरा क्या? क्योंकि अब तो लगता है कि तुम सदैव पास हो। यह मैं नहीं, तुम हो जो इस तरह अपने बड़ों की सेवा में लगे रहते हो। वरना मुझ में इतना साहस कहाँ? इतनी बरताश्त कहाँ? इतनी शक्ति कहाँ?
कभी थोडा़ सा समय मिल जाता है तो तुम्हें खत लिख देती हूँ। जान नहीं पाती क्या लिख रहीं हूँ। मन हल्का-सा हो उठता है। परन्तु तुम इस तरह दुःख न करो। दुःख करोगे तो मेरे जीवन के सारे आसरे टूट जायेंगे।
सुधा
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